Tuesday, 14 April 2020

वृक्ष की उपसना

भारतीय संसकृति मानव जीवन में भावना और बुधिद का समंवय करती है, वह मानव को केवल अपने आप तक सीमित न रखकर समग्र मानव - जाति पर प्रेम करना सिखाती है, इतना ही नही बलिक मानव सीमा को लांघकर वह उसें पशु सृषिट और वनसपति - सृषिट पर भी प्रेंम करने की शिक्षा देती हैं आतम गौरव , मनुसय गौरव प्राणि गौरव और सृषिट गौरव इन सभी का समावेश भारतीय संसकृति में दिखायी देता हैं | भारतीय दरशन भद्रदरशन है, वह विभूतियोग समझाता है,
गीतकार ने इस संसार को ही अश्रवरतथ वृक्ष की उपमा दी है वेंदो को इस वृक्ष के पतते माना हैं पततों से जिस तरह वृक्ष शोभा देता हैं उसी तरह सचचा वेद-ज्ञान संसार को शोभा देता है |
अंग्रेज कवि शेकस पियर भी निसरग-शिक्षा की महिमा गातें हुए कहता है

Tongues in tree
Books in running broker's
Sermons in stones and Good in every thing.

दूसरे एक संदरभ में भी वह लोगो को निसरग के सानिधय में आने का निमंत्रण देता है |

Under the Green wood tree
Who loves to lie with me
And turn his merry note
Unto the sweet birds throat
Come hither , Come hither , Come hither
Here shall he see
No enemy,
But winter and rough weather.

आतमयौपमय वृतित से पूवरजों ने वृक्ष-वनसपति पर प्रेम किया है अपना सहोदर मानकर सनेह सें उनका सिंचन किया है शिव जी ने जिसे पुत्रवत् माना है एेसे देवगुरु वृक्ष को पारवती ने सवयम जल-सिंचन करके पाला था ,उसका अति रमणीय वणरन कालिदास ने रघुवंश में किया है,
अमुं पुर : परयसि देवदारूं पुत्रीकृतोउसौ वृषभधवजेन |
यो हेम कुमभसतननि: सृतानां सकनदसय मातु: पयसां रसज्ञः ||

महरसि वरतनतु का शिसय कौतस जब राजरसि
रघु के पास आता है तब रघु राजा उसें
आश्रम के वृक्षों की भी कशलक्षेम पुछतें हैं

आधार बनध प्रमुखैः प्रयतनैः संवधितानां सुतनिविरशेषम|
कचिचनन वाधवदिरूपपलवों वः श्रमचिछदामा श्रमवादपानाम||

आश्रम के वे वृक्ष जिनहे तुमने पुत्र की तरह यतन से पाला है जिनसे पाथिकों को छाया मिलती है उन वृक्षों को आँधी या तूफान आदि उपद्रवों से हानि तो नही हुई न ? यह घटना इस बात का सूचन करती है, कि उस काल में वृक्षों को मानव का आतमीयजन माना जाता था ,और मानव की तरह उनकी खबर पूछी जाती थी |
शकुनतला जब वृक्षों को पानी पिलाती थी तब उसकी सखी अनुसूया उसें कहती है ' कणव का तुमसे जयादा इन वृक्षों पर प्रेम है इसीलिए तो तुझे इन वृक्षों को पानी पिलाने को कहा है " तब शकुंतला भावयुकत होकर कहती है,

' न केवल तातनिपोग एव |
असित में सोदर सनेहो ऽपयेतेषु || '

पिता जी की आज्ञा से मैं पानी पिलाती हूँ , एेसा नही है , इन वृक्षों पर मुझें सगे भाई जैसा प्रेम है, इसलिए पानी पिलाती हूँ |
शकुंतला जब ससुराल जाने को निकलती है तब महरषि कणव वृक्षों को उसें विदाई देने को कहतें हैः

पातुं न प्रथम वयवसयति जलं युषमासवपीतेषु या
नादतते प्रियमणडनापि भवतां सनेहेन या पललवम्|
आधे वः कुसुम प्रसूति समयें यसयाः भवतयुतसवः
सेयं याति शकुंतला पतिग्रहं सवेररनुज्ञाधयताम्||

तुमहें पिलानें से पहले जो पानी नही पीथी थी ,शृंगार पसंद है फिर भी तुमहारे प्रति प्रेम के कारण तुमहारा पता भी नही तोड़ती थी | तुमहारा प्रथम पुसप फूलनें के समय जिसें उतसव जैसा आनंद होता था | वह शकुंतला आज पति के घर जा रही है, उसें सभी आज्ञा दों |
अश्रतथ वृक्ष के औषधि युकत गुण और उसकी उपयुकतता धयान में लेकर हमारे पूवरजों नें समसत वृक्ष सुषिट के प्रतिनिधि के रूप के दरशन कियें है, और उसका सतवन गाया हैं,

मूलतों ब्रहयरूपाय मधयतों विषणुरूपिणें ||
अग्रतः शिवरूपाय अश्रतथाय नमों नमः||

भगवान श्रीकृषण ने भी ,पीपल मेरा ही रूप है ऐसा कहकर उसकी महता गायी हैं, अश्रतथः सवरवृक्षाणाम् |
हमारी सित्रयॉ वृक्षपूजन का व्रत रखती है, वटवृक्ष और पीपल की पूजा करती है उनहे जनेऊ पहनाती है यह कोई पागटपन नही है परनतु वृक्षों के साथ उनकी आतमीयता है वट सावित्री का व्रत करने वाली सत्री वट की पूजा करती है उससे अखंणड सौभागय की याचना करती है|
वटवृक्ष से वह जीवन की दृढ़ता मांगती है पति के लिए वटवृक्ष के समान दीरघायु और कुटुंब के लिए वटवृक्ष का सथैरय और विसतार मांगती है |
वृक्ष की जीवन ऋषितुलय है , दोपहर की चिलचिलाती धूप में वह खुद तपकर दूसरों को छाया देता है पतथर मारने वाले को वह मीठे फल देता है उसकी मृतयु के बाद भी उसकी लकड़ी उपयोग में आती है , जगत सें कुछ नही मांगता है इतना ही नही आभार की अपेक्षा भी नही रखता है अपनी जड़ जमीन की गहराई में ले जाकर वह अपनी खोराक सवंम प्रापत कर लेता है अपने पैरो पर खड़ा रहकर अनय की सेवा करने का यह वृक्ष का संदेश प्रतयेक समाज-सेवक को धयान में रखने जैसा है|
वृक्ष की तरह वनसपति के साथ भी हमारे पूरवजों ने आतमीय संबंध जोड़ा उसका पूजन किया , उससे दीरघायु ,यश ,बल, तेज , प्रज्ञा , पशु ,वैभव , तथा मेघा की मांग की |

आयुरवल घशों वचरः प्रज्ञा पशून वसूनि च|
ब्रहमय प्रज्ञा च मेधां च तवं नो देहि वनसपतें |

वनसपति के प्रतीक के रूप में तुलसी के पौधे को घर में रखकर उसका पूजन किया| सरदी या बुखार दूर करने के उसके आयुरवेदिक गुण को धयान में रखकर और बारह महीने की उसकी सुलभता देखकर घर के ऑगन में उसकी सथापना की प्रतयेक संसकारी कुटुंब में तुलसी की पूजा होती है भगवान की पूजा सें तुलसी को गौरवपूरण सथान मिला है भगवान की प्रिय सखी का मानपूरण सथान उसें प्रापत हुआ है,

तुलसि ! श्रीसखि शिवे पापधरिणि पुणयदे |
नमसतें नारदनुतें नमों नारायणप्रियें ||

भगवान को पतते प्रिय है कहकर विषणु पूजन में तुलसी को सथान दिया गया और शिवपूजन में बिलवपत्र का महतव गाया गया है , गणपति को दूरवा प्रिय है हमारे ऋषियों ने वृक्ष-वनसपति का तो पूजन किया है , परनतु घास के तृण के साथ भी आतमीयता साधी आदर युकत सनेहभाव किया और घास के प्रतिनिधि के रूप में पूरवा को उनहोने गणेशपूजन में प्रधानता दी |
चराचर सृषिट पर प्रेम करने की शिक्षा देनेवाली भारतीय संसकृति है , सरवत्र कृतज्ञता प्रकट करने वाली यह महान संसकृति है , उसकी अंतरातमा को परखने की जरूरत है हम भी वैसा भावपूरण अंतःकरण खिलाएं , मानवमात्र पर तो प्रेम करें ही साथ ही साथ हमारी भावना को इतना सीमित न रखकर पशुसृषिट पर और वृक्ष- वनसपति पर भी प्रेम करें तो यही नंदनवन निरमाण होगा|
१. नीम
२. साजा
३. धातूरा
४. बेर फल
५. नारियल
६. मैंगौ पतितयॉ
७. पान पतितयॉ
८. दशोंदा फूल
९. बारहमासी फूल
१०. बेल पतितयॉ
११. नींबू फल एवं पतितयॉ
१२. ऑवला पेड़ फल
१३. रूद्रकक्षा पेड़

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